Arvind Kumar Bhardwaj

Arvind Kumar Bhardwaj

Wednesday 29 June 2016

Shri DakShina Kali KhaDgamala Stotram

श्रीदक्षिणकालीखड़्गमाला स्तोत्रम्
ॐ ऐं ह्रीं श्रीं क्रीं हूं ह्रीं ॐ नमस्दक्षिणकालिके – हृदयदेवि शिरोदेवि शिखादेवि कवचदेवि नेत्रदेवि अस्रदेवि सर्वसम्पतप्रदायकचक्रस्वामिनि जयासिद्धिमयि अपराजितासिद्धिमयि नित्यासिद्धिमयि अघोरासिद्धिमयि सर्वमंगलमयचक्रस्वामिनि श्रीगुरुमयि परमगुरुमयि परात्परगुरुमयि परमेष्ठिगुरुमयि सर्वसम्पतप्रदायकचक्रस्वामिनि महादेव्याम्बामयि महदेवानन्दनाथमयि त्रिपुराम्बामयि त्रिपुरभैरवनाथमयि ब्रह्मानन्दनाथमयि (पूर्वदेवानन्दनाथमयि चलाकिदानन्दनाथमयि लोचनानन्दनाथमयि कुमारानन्दनाथमयि क्रोधानन्दनाथमयि वरदानानन्दनाथमयि स्मराद्विर्यानन्दनाथमयि मायाम्बामयि मायावत्याम्बामयि विमलानन्दनाथमयि) कुशलानन्दनाथमयि भीमसुरानन्दनाथमयि सुधाकरानन्दनाथमयि मीनानन्दनाथमयि गोरक्षकानन्दनाथमयि भोजदेवानन्दनाथमयि देवानन्दनाथमयि प्रजापत्यानन्दनाथमयि मूलदेवानन्दनाथमयि ग्रन्थिदेवानन्दनाथमयि विघ्नेश्वरानन्दनाथमयि हुताशनानन्दनाथमयि समरानन्दनाथमयि संतोषानन्दनाथमयि सर्वसम्पतप्रदायकचक्रस्वामिनि कालि कपालिनि कुल्ले कुरुकुल्ले विरोधिनि विप्रचित्ते उग्रे उग्रप्रभे दीप्ते नीले घने बलाके मात्रे मुद्रे मित्रे सर्वेप्सितप्रदायकचक्रस्वमिनि ब्राह्मि नारायणि माहेश्वरि चामुण्डे कौमारि अपराजिते वराहि नार्सिंहि त्रिलोक्यमोहनचक्रस्वमिनि असिताङ्गभैरवमयि रुरुभैरवमयि चण्डभैरवमयि क्रोधभैरवमयि उन्मत्तभैरवमयि कपालिभैरवमयि भीषणभैरवमयि संहारभैरवमयि सर्वसंक्षोभणचक्रस्वमिनि हेतुबटुकानन्दानाथमयि त्रिपुरान्तकबटुकानन्दानाथमयि वेतालबटुकानन्दानाथमयि वह्निजिह्वबटुकानन्दानाथमयि कालबटुकानन्दानाथमयि करालबटुकानन्दानाथमयि एकपादबटुकानन्दानाथमयि भीमबटुकानन्दानाथमयि सर्वसौभग्यदायकचक्रस्वमिनि ॐ ऐं ह्रीं क्लीं हूं फट् स्वाहा सिंहब्याघ्रमुखीयोगिनीदेवीमयि सर्पाखुमुखीयोगिनीदेवीमयि मृगमेषमुखीयोगिनीदेवीमयि गजबाजिमुखीयोगिनीदेवीमयि क्रोष्टाखुमुखीयोगिनीदेवीमयि लम्बोदरीमुखीयोगिनीदेवीमयि ह्रस्वजंघायोगिनीदेवीमयि तालजंघाप्रलमोष्ठीयोगिनीदेवीमयि सर्वार्थदायकचक्रस्वामिनि ॐ ऐं ह्रीं श्रीं क्रीं हूं ह्रीं इन्द्रमयि अग्निमयि यममयि निऋतिमयि वरुणमयि वायुमयि कुबेरमयि ईशानमयि ब्रह्मामयि अनन्तमयि वज्रणि शक्तिनि दण्डिनि खड़्गिनि पाशिनि अङ्कुशिनि गदिनि त्रिशुलिनि पद्मिनि चक्रिणि सर्वरक्षाकरचक्रस्वामिनि खड़्गमयि मुण्डमयि वरमयि अभयमयि सर्वाशापरिपूरकचक्रस्वामिनि बटुकानन्दानाथमयि योगिनिमयि क्षेत्रपालानन्दानाथमयि गणनाथानन्दानाथमयि सर्वभूतानन्दानाथमयि सर्वसंक्षोभणचक्रस्वमिनि नमस्ते नमस्ते फट् स्वाहा ।

चतुरस्त्राद्  बहिः  सम्यक्  संस्थिताश्च समन्ततः। ते च सम्पूजिताः सन्तु देवाः देवि गृहे स्थिताः ॥ सिद्धाः साध्या भैरवाः गन्धर्वाश्च वसवोऽश्विनो । मुनयो ग्रहा तुष्यन्तु विश्वेदेवाश्च उष्मयाः ॥ रूद्रादित्याश्चपितरःपन्नगःयक्ष चारणाः । योगेश्वरोपासका ये तुष्यन्ति नर किन्नराः ॥नागा  वा  दानवेन्द्राश्च  भूत प्रेत  पिशाचकाः  । अस्त्राणि सर्व शस्त्राणि मन्त्र यन्त्रार्चन क्रियाः ॥ शान्तिं   कुरु  महामाये  सर्व  सिद्धि   प्रदायिके   । सर्व सिद्धि चक्र स्वामिनि नमस्ते नमस्ते स्वाहा ॥ सर्वज्ञे    सर्वशक्ते       सर्वार्थप्रदे          शिवे             । सर्वमंगलमये          सर्वव्याधि          विनाशिनि ॥ सर्वाधारस्वरूपे सर्वमंगलदायकचक्रस्वामिनि नमस्ते नमस्ते फट् स्वाहा ।                                            
“ क्रीं ह्रीं हूं क्ष्यीं महाकालाय, हौं महादेवाय, क्रीं कालिकायै, हौं महादेव महाकाल सर्वसिद्धिप्रदायक देवी भगवती चण्ड चण्डिका चण्ड चितात्मा प्रीणातु दक्षिणकलिकायै सर्वज्ञे सर्वशक्ते श्रीमहाकालसहिते श्री दक्षिणकलिकायै नमस्ते नमस्ते फट् स्वाहा ॥ ह्रीं हूं क्रीं श्रीं ह्रीं ऐं ॐ ॥
॥ इति श्रीरूद्रयामलेदक्षिणकालिकाखड़्गमालास्तोत्रम् सम्पूर्णम् ॥

सङ्कलनकर्ता ‌- अरविन्द कुमार भारद्वाज  (२९-०६- २०१६)

Monday 16 May 2016

"तन्त्र शब्द की दार्शनिक व्याख्या तथा परिभाषा"

"तन्त्र शब्द की दार्शनिक व्याख्या तथा परिभाषा"

तन्त्र शब्द की निष्पत्ति प्रसारार्थक तनु धातु के साथ त्राणार्थक त्रैङ धातु के संयोग से होती है । तन्त्र शब्द की दार्शनिक व्याख्या साङ्ख्य के परिणामवाद के आधार पर की जाती है तथा तन्त्र की यह व्याख्या ही सर्वश्रेष्ठ व्याख्या है जो तन्त्र के मूल, उद्देश्य तथा मर्म का निर्मल निरूपण करती है और साथ ही साथ तन्त्र के तात्त्विकानुसंधान के मार्ग को प्रशस्त करती है ।
साङ्ख्य दर्शन में सत्कार्यवाद अथवा कारणवाद को ही परिणामवाद के नाम से जाना जाता है । परिणामे तु रूपान्तरं तिरोभवति । रूपान्तरं च प्रादुर्भवति ॥ (ई० प्रत्यभिज्ञाविवृति वि०अ० १ वि०) अर्थात् किसी पदार्थ के एक रूप का तिरोभाव होकर दूसरे रूप का प्रकट होना ही परिणाम कहलाता है । जैसे – तिल से तैल का निकलना ।
साङ्ख्य के परिणामवाद में यह स्पष्ट किया गया है कि प्रत्येक कार्य अपनी उत्पत्ति से पूर्व अपने उपादान कारण में अव्यक्त रूप से विद्यमान रहता है । कार्य की अव्यक्तावस्था ही कारण है तथा कारण की व्यक्तावस्था ही कार्य कहलाती है । कारण सत् है तो कार्य भी सत् ही है – यही सत्कार्यवाद है । कारण से ही कार्य की उत्पत्ति होती है – यही कारणवाद है । कारण का परिणाम कार्य है – यही परिणामवाद है । उदाहरणतः दही से घी का बनना । यहाँ यह बात विशेष रूप से ध्यान देने योग्य है कि उपादान कारण दही से सर्वथा विलक्षण कार्य घी की उत्पत्ति हो रही है । साङ्ख्य के इस सिद्धान्त का वेदान्त भी समर्थन करता है । “दृश्यते तु” (ब्रह्मसूत्र २.१.६) श्रुति में उपादान कारण से विलक्षण कार्य की उत्पत्ति का उल्लेख देखा जाता है । इस सूत्र को दृढ़ता के साथ सिद्ध करने के लिए — यथोर्णनाभिः सृजते गृह्णते च यथा पृथिव्यामोषधयः सम्भवन्ति । यथा सतः पुरुषात् केशलोमानि तथाक्षरात् सम्भवतीह विश्वम् ॥” (मु०उ० १.१.७) अर्थात् जिस प्रकार मकड़ी जाले को बनाती है और निगल जाती है, जिस प्रकार पृथ्वी में अनेक प्रकार की औषधियाँ उत्पन्न होती हैं, जिस प्रकार मनुष्य से बाल और रोएँ उत्पन्न होते हैं उसी प्रकार अक्षर ब्रह्म से यह विश्व उत्पन्न होता है । — इस श्रुति के द्वारा यह भी समझाया गया है कि उपादानकारण से विलक्षण कार्य की उत्पत्ति सम्भव है । कारण से कार्य की उत्पत्ति होती है, जब तक कार्य प्रकट नहीं होता तब तक कारण की सत्ता का भी भान नहीं होता है । वैसे तो कारण सदैव सूक्ष्मावस्था में वर्तमान रहता है परन्तु जब तक कारण कार्यरूप में परिणत नहीं होता तब तक कारण के अभाव की मिथ्या प्रतीति होती है । वस्तुतः कारण का अभाव नहीं है, वह तो सूक्ष्मरूप में विद्यमान है । “सौक्ष्म्यात्तदनुपलब्धिर्नाभावात् कार्यतस्तदुपलब्धेः।” (साङ्ख्यकारिका-८) अर्थात् यदि कोई वस्तु दिखाई न दे तो उसका कारण सूक्ष्मता है, अभाव नहीं, क्योकिं उससे उत्पन्न होने वाला कार्य उसकी सत्ता को प्रकाशित करता है ।
तैत्तिरीयोपनिषद् की श्रुति कहती है कि ‌‌- “असद् वा इदमग्र आसीत् । ततो वै सदजायत । तदात्मानं स्वयमकुरुत । तस्मात्तत्सुकृतमुच्यते ।” (तै०उ० २.७) अर्थात् यह सब पहले असत् ही था, उसी से सत् उत्पन्न हुआ; उसने स्वयं ही अपने को इस रूप में बनाया, इसलिये उसे सुकृत कहते हैं । इस श्रुति में प्रकट होने से पहले जो अप्रकट रूप में रहना धर्मान्तर है, इसी को असत् नाम से कहा गया है । छान्दोग्योपनिषद् में इस तथ्य को विशेष रूप से स्पष्ट किया गया है – “तद्धैक आहुरसदेवेदमग्र आसीदेकमेवाद्वितीयं तस्मादसतः सज्जायत ।“ (छा०उ० ६.२.१) अर्थात् कोई कहते हैं कि पहले यह जगत् असत् ही था, अकेला वही अद्वितीय था, फिर उस असत् से सत् उत्पन्न हुआ । यह बतलाकर श्रुति स्वयं ही निवारण करती है – “कुतस्तु खलु सोम्यैवं स्यादिति होवाच कथमसतः सज्जायेतेति ।”  (छा०उ० ६.२.२) अर्थात् हे सोम्य ! ऐसा होना कैसे सम्भव है, असत् से सत् कैसे उत्पन्न हो सकता है ? कहने का अर्थ यह है कि अभावसे भाव की उत्पत्ति नहीं हो सकती । “सत्त्वेव सोम्येदमग्र आसीत् ।” (छा०उ० ६.२.२) अर्थात् हे सोम्य ! यह सब पहले सत् ही था । तात्पर्य यह है कि उत्पत्ति से पहले यह जगत्  अप्रकट (असत्) था, फिर उससे सत् की उत्पत्ति हुई अर्थात् अप्रकट से प्रकट हो गया । यह सब पहले सत् ही था ‌‌– ऐसा श्रुति ने निश्चय किया है । अतः यहाँ सत्कार्यवाद की ही सिद्धि होती है ।
वेदान्त का विवर्तवाद भी तन्त्र के दार्शनिक दृष्टिकोण को समझने में उतना ही महत्त्वपूर्ण है जितना साङ्ख्य का परिणामवाद । “विवर्तो हि असत्यरूप निर्भासम ।” (अभिनवगुप्त : ई०प्र०वि०वि०) अर्थात् किसी पदार्थ का असत्यरूप में निर्भास होना विवर्त है । जैसे – रस्सी में सर्पाभास होना । एक ही पृथिवी तत्त्व के अनेक प्रकार के कार्य घट, सूत, काष्ठ आदि में परस्पर भेद की प्रतीति अविद्या के कारण होती है । जिस प्रकार घट मिट्टी का कार्य है उसी प्रकार सूत व काष्ठ भी मिट्टी के ही कार्य हैं, इनका प्रादुर्भाव मिट्टी से होता है तथा इनका तिरोभाव मिट्टी में ही हो जाता है । इनमें दृष्टिगत होने वाला नाम तथा रूप भेद मिथ्या है । “तदनन्यत्वमारम्भणशब्दादिभ्यः” (ब्रह्मसूत्र २.१.१४) अर्थात् आरम्भण शब्द आदि हेतुओं से कार्य की कारण से अनन्यता सिद्ध होती है । “यथा सोम्यैकेन मृत्पिण्डेन सर्व मृन्मयं विज्ञातं स्याद् वाचारम्भणं विकारो नामधेयं मृत्तिकेत्येव सत्यम् ।”  (छा०उ० ६.१.४) अर्थात् हे सोम्य! जिस प्रकार मिट्टी के एक ढेले का तत्त्व जान लेने पर मिट्टी से उत्पन्न होने वाले सभी कार्य जाने हुए हो जाते हैं, उनके नाम और रूप के भेद तो व्यवहार के लिए हैं, वाणी से उनका कथन (मिथ्या) मात्र होता है, वास्तव में वह कार्य रूप घट आदि होते हुए भी वह कारण रूप मिट्टी ही हैं ।
परिणामवाद उपादान कारण से विलक्षण कार्य की उत्पत्ति सिद्ध करता है तो विवर्तवाद कार्य में रहने वाले कारण से विलक्षण नाम और रूप के भेद को मिथ्या सिद्ध करता है । प्राचीन विद्वानों ने विवर्तवाद और परिणामवाद को पर्याय के रूप में स्वीकार किया था परन्तु परवर्ती विद्वनों द्वारा इन्हें अलग-अलग माना जाने लगा । परिणामवाद और विवर्तवाद यह दोनों सम्मिलितावस्था में ही तन्त्र के वास्तविक रूप को निरूपित कर सकते हैं क्योंकि तन्त्र का दार्शनिक सिद्धान्त इन दोनों को पर्याय के रूप में ग्रहण करता है । आधुनिक दर्शनशास्त्र के अनुसार भी परिणामवाद और विवर्तवाद में कोई गम्भीर मतभेद दृष्टिगोचर नहीं होता । वेदान्त में परिणामवाद के सिद्धान्त का पोषण किया गया है क्योंकि यही व्यक्ति को विवर्तवाद के केन्द्रीय सिद्धान्त तक ले जाता है । परिणामवाद को आधार बनाकर तन्त्र की ओर अग्रसर होने का मार्ग इसलिए अङ्गीकृत किया गया क्योंकि यह सगुण ब्रह्म के ध्यान के लिए उपयोगी है ।
तान्त्रिकों का मत है कि इस जगत् का कारण ब्रह्म है जो शिव नाम से जाना जाता है (तन्त्र में जगत् के कारण ब्रह्म की शिव संज्ञा है) तथा यह सम्पूर्ण सृष्टि (प्रपञ्च) उस ब्रह्म अर्थात् शिव का कार्य है । कारण की कार्य रूप में अभिव्यक्ति कारण का व्यापार  है, कारण का यह व्यापार ही शक्ति है अथवा कारण जिस सामर्थ्य द्वारा कार्य में परिणत होता है, वह कारण की शक्ति कहलाती है ।  सरल शब्दों में यह कहा जा सकता है कि ब्रह्म अर्थात् शिव का अपनी सामर्थ्य अर्थात् शक्तिके द्वारा सृष्टि अर्थात् प्रपञ्च के रूप में प्रसार हो जाता है । इस प्रपञ्च की स्थिति भी शक्तिके द्वारा रहती है तथा इस शक्ति के द्वारा ही प्रपञ्च का शिव में लय हो जाता है अर्थात् कार्य का कारण में लय हो जाता है । इस प्रकार शक्ति द्वारा सृष्टि, स्थिति तथा लय का चक्रियक्रम सम्पन्न होता रहता है । यह समस्त जगत् प्रकट होने से पहले भी शिव की शक्ति के रूप में अवश्य था । इसका वर्तमान स्वरूप उसी प्रकार अप्रकट था जिस प्रकार स्वर्ण के विकार आभूषणादि उत्पत्ति के पहले और लय होने के पश्चात् अपने कारण रूप स्वर्ण में शक्तिरूप से रहते हैं । शक्ति, शक्तिमान् (शिव) में अभेद होने के कारण उनकी अनन्यता में किसी प्रकार का दोष नहीं आता, उसी प्रकार यह जड-चेतनात्मक अखिल विश्व उत्पत्ति के पहले और प्रलय के बाद शिव मे शक्तिरूप से अव्यक्त रहता है । अतः जगत् की शिव से अनन्यता में किसी प्रकार की बाधा नहीं आती । अतः यह अखिल प्रपञ्च शक्ति की लीला है । जिसे वेदान्त में माया के नाम से जाना जाता है । माया की उपाधि से युक्त होने पर ब्रह्म निर्गुण नहीं रह जाता, वह सगुण हो जाता है । माया की उपाधि से युक्त ब्रह्म (शिव-शक्ति युगल) ही संसार का कर्ता है । यह जगत् शिव का विवर्त है और शक्ति का परिणाम ।
समस्त आन्तरिक तथा बाह्य जगत्प्रपञ्च मूलप्रकृति रूपी पराशक्ति का विकार – विस्तार है । पराशक्ति का विकार – विस्तार असीमित है । पराशक्ति का रूप अक्षरात्मक है । अखिल प्रपञ्च का प्रादुर्भाव वर्णमयी पराशक्ति के हकार से होता है और अन्ततः उसी में सकल प्रपञ्च का तिरोभाव हो जाता है । पराशक्ति मनुष्य शरीर के मूलाधार चक्र में परावाक् कुण्डलिनी के रूप में प्रसुप्त रहती है । यह परावाक् स्वयं को अभिव्यक्त करने की इच्छा से त्रि-चतुः-पञ्च-षट्-सप्त-अष्ट-दश-द्वादश-पञ्चाशत् गुणित होकर अपना आत्मविस्तार करती है । जब यह कुण्डलिनी पञ्चाशत् गुणित होती है तब यह मूलाधार में अपने अधिष्ठानरूप पुरूष तत्त्व से दिव्यभाव प्राप्त कर नाद के साथ सुषुम्ना के मार्ग से कण्ठादि स्थानों का स्पर्श करती हुई अ से क्ष तक के पचास वर्णों के रूप में अभिव्यक्त होती है । समस्त जगत् की सृष्टि अक्षर अर्थात् पराशक्ति शब्दब्रह्म परावाक् से हुई है । यहाँ तन्त्र शब्द की प्रसारार्थक तनु धातु का – पराशक्ति का आत्मविस्तार यह अर्थ प्रकट होता है । विस्तार होने से उद्भूत विस्तृत वस्तु की रक्षा अत्यन्तावश्यक है । यदि इस विस्तृत प्रपञ्च की रक्षा न की जाये तो इस जगत्प्रपञ्च का तत्काल ही नाश हो जायेगा और शक्ति की लीला शान्त हो जायेगी । अतः अपनी लीला को सतत् रखनेके लिये पराशक्ति अपने आत्मविस्तार का त्राण करती है – यही तन्त्र शब्द की त्राणार्थक त्रैङ धातु का अर्थ है । पराशक्ति के तनन द्वारा अभिव्यक्त प्रपञ्च तथा पराशक्ति द्वारा इस प्रपञ्च का त्राण – यही है तन्त्र का अर्थ । सरल शब्दों में यह कहा जा सकता है कि पराशक्ति द्वारा रक्षित यह सकल प्रपञ्च अर्थात् सृष्टि ही तन्त्र है, जो शिव का विवर्त तथा शक्ति का परिणाम है ।

— अरविन्द कुमार भारद्वाज

                                                                                                                      १६-०५-२०१६

Sunday 1 November 2015

ईशावास्योपनिषद्

ईशावास्योपनिषद्
शुक्लयजुर्वेदसंहिता का ४० वाँ अध्याय ही ईशावास्योपनिषद् है। ईशावास्योपनिषद् को सबसे पहला उपनिषद् माना जाता है। ईशावास्योपनिषद् में कुल १८ श्लोक हैं जिनका सरलार्थ यहाँ प्रस्तुत है।
शान्तिपाठ
ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्णमुदच्यते ।
             पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते ॥ (बृ॰ ५.१.१)
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः

अखिल ब्रह्माण्ड में जो कुछ भी जड-चेतनस्वरूप जगत् है, यह समस्त ईश्वर से व्याप्त है। उस ईश्वर को साथ रखते हुए त्यागपूर्वक इसे भोगते रहो, इसमें आसक्त मत होओ क्योंकि धन (भोग्य-पदार्थ) किसका है अर्थात् किसी का भी नहीं है।१। शास्त्रजनित कर्मों को ईश्वरपूजार्थ करते हुए ही इस जगत् में सौ वर्षों तक जीने की इच्छा करनी चाहिये। इस प्रकार त्याग भाव से परमेश्वर के लिये किये जाने वाले कर्म तुझ मनुष्य में लिप्त नहीं होंगे, इससे भिन्न अन्य कोई प्रकार अर्थात् मार्ग नहीं है जिससे कि मनुष्य कर्म से मुक्त हो सके ।२। असुरों की जो प्रसिद्ध नाना प्रकार की योनियाँ एवं नरकरूप लोक हैं वे सभी अज्ञान तथा दुःख-क्लेश रूप महान् अन्धकार से आच्छादित हैं। जो कोई भी आत्मा की हत्या करने वाले (जो आत्मा के स्वरूप को नहीं जान पाते) हैं वे मरकर उन्हीं भयंकर लोकों को बार बार प्राप्त होते हैं।३। वह परमेश्वर अचल एक और मन से भी अधिक तीव्र गतियुक्त है, सबका आदि, ज्ञानस्वरूप या सबका जानने वाला है। इस परमेश्वर को इन्द्रादि देवता भी नहीं पा सके या जान सके, वह परब्रह्म दूसरे दौड़ने वालों को स्वयं स्थित रहते हुये ही अतिक्रमण कर जाते हैं, उनके होने पर ही –उन्हीं की सत्ता शक्ति से वायु आदि देवता जलवर्षा, जीव की प्राणधारणादि क्रिया प्रभृति कर्म सम्पादन करने में समर्थ होते हैं।४। वह (परब्रह्म) चलता है, वह नहीं चलता है, वह दूर से भी दूर है, वह अत्यन्त समीप है, वह इस समस्त जगत् के भीतर परिपूर्ण है और वह इस समस्त जगत् के बाहर भी है।५। जो मनुष्य सम्पूर्ण प्राणियों को परमात्मा में निरन्तर देखता है, और सभी प्राणियों में परमात्मा को देखता है फिर वह किसी से घृणा नहीं करता।६। जिस स्थिति में परब्रह्म परमेश्वर को भलीभाँति जानने वाले महापुरुष के अनुभव में सम्पूर्ण प्राणी एकमात्र परमात्मस्वरूप ही हो जाते हैं, उस अवस्था में एकता का निरन्तर साक्षात् करने वाले पुरुष के लिये कौन सा मोह, कौन सा शोक रह जाता है? (वह शोक मोह से सर्वथा रहित, आनन्दपरिपूर्ण हो जाता है)।७। वह महापुरुष, उस परम तेजोमय सूक्ष्मशरीर से रहित, क्षतरहित, स्थूल पाञ्चभौतिक शरीर से रहित, अप्राकृत दिव्य सच्चिदानन्दस्वरूप, शुभाशुभकर्म-सम्पर्कशून्य उस परमेश्वर को प्राप्त हो जाता है जो सर्वद्रष्ट, ज्ञानस्वरूप, सर्वनियन्ता, स्वेच्छा से प्रकट होने वाला और अनादि काल से सब प्राणियों के कर्मानुसार यथायोग्य सम्पूर्ण पदार्थों की रचना करता आया है।८। जो मनुष्य अविद्या (कर्मों) की उपासना करते हैं वे अज्ञानस्वरूप घोर अन्धकार में प्रवेश करते हैं और जो मनुष्य विद्या (शास्त्र अथवा ज्ञान के मिथ्याभिमान) में रत हैं वे उससे भी अधिक अन्धकार में प्रवेश करते हैं।९। ज्ञान के यथार्थ अनुष्ठान से अन्य ही फल बतलाते हैं और कर्मों के यथार्थ अनुष्ठान से अन्य ही फल बतलाते हैं, इस प्रकार हमने उन धीर पुरुषों के वचन सुने हैं जिन्होंने हमें उस विषय (तत्त्व) को भलीभाँति समझाया था।१०। जो मनुष्य उन दोनों को अर्थात् ज्ञान के तत्त्व को और कर्म के तत्त्व को भी साथ साथ यथार्थतः जान लेता है, वह कर्मों के अनुष्ठान से मृत्यु को पार करके ज्ञान के  अनुष्ठान से अमृत को भोगता है अर्थात् अविनाशी आनन्दमय परब्रह्म पुरुषोत्तम को प्रत्यक्ष प्राप्त हो जाता है।११। जो मनुष्य विनाशशील देव-पितर आदि की उपासना करते हैं वे अज्ञानस्वरूप घोर अन्धकार में प्रवेश करते हैं और जो मनुष्य अविनाशी परमात्मा (उपासना के मिथ्याभिमान) में रत हैं वे उससे भी अधिक अन्धकार में प्रवेश करते हैं।१२। अविनाशी परमात्मा की उपासना से अन्य ही फल बतलाते हैं और विनाशशील देव-पितर आदि की उपासना से अन्य ही फल बतलाते हैं, इस प्रकार हमने उन धीर पुरुषों के वचन सुने हैं जिन्होंने हमें उस विषय (तत्त्व) को भलीभाँति समझाया था।१३। जो मनुष्य उन दोनों को अर्थात् अविनाशी परमात्मा को और विनाशशील देव-पितर आदि को भी साथ साथ यथार्थतः जान लेता है, विनाशशील देव-पितर आदि की उपासना से मृत्यु को पार करके अविनाशी परमात्मा की उपासना से अमृत को भोगता है अर्थात् अविनाशी आनन्दमय परब्रह्म पुरुषोत्तम को प्रत्यक्ष प्राप्त हो जाता है।१४। हे सबका भरण पोषण करनेवाले परमेश्वर ! सत्यस्वरूप आप सर्वेश्वर का श्रीमुख ज्योतिर्मय सूर्यमण्डलरूप हिरण्मय पात्र से ढका हुआ है, आप की भक्तिरूप सत्य धर्म का अनुष्ठान करने वाले (मुझको) अपने दर्शन कराने के लिए, उस आवरण को आप हटा लीजिए ।१५। हे भक्तों का पोषण करने वाले ! हे मुख्य ज्ञान स्वरूप ! हे सबके नियनन्ता ! हे ज्ञानियों (सूरियों) के परमलक्ष्यरूप! हे प्रजापति के प्रिय! इन रश्मियों को एकत्र कीजिएया हटा लीजिए, इस तेज को समेट लीजिए या अपने तेज में मिला लीजिए। जो आपका अतिशय कल्याणमय दिव्य स्वरूप है, उस आपके दिव्य स्वरूप को मैं आपकी कृपा से ध्यान के द्वारा देख रहा हूँ; जो वह है, वह परम पुरुष मैं भी हूँ।१६। अब ये प्राण और इन्द्रियाँ अविनाशी समष्टि वायु तत्त्व में प्रविष्टहो जायें, यह स्थूल शरीर अग्नि में जल कर भस्म रूप हो जाए। हे ॐ ! यज्ञमय भगवन् ! आप मुझ भक्त को स्मरण करें; मेरे द्वारा किये हुए कर्मों का स्मरण करें; आप मुझ भक्त को स्मरण करें; मेरे द्वारा किये हुए कर्मों का स्मरण करें।१७। हे अग्नि के अधिष्ठातृ देवता ! हमें परम धनरूप परमेश्वर की सेवा में पहुँचाने के लिये सुन्दर शुभ मार्ग से आप ले चलिये; हे देव! आप हमारे सम्पूर्ण कर्मों को जानने वाले हैं अतः हमारे इस मार्ग के प्रतिबन्धक यदि कोई पाप हैं तो उन सबको आप दूर कर दीजिये, आपको बार बार नमस्कार के वचन हम कहते हैं‌‌ ‌- बार बार नमस्कार करते हैं।१८। 

(गीताप्रेस गोरखपुर-उपनिषद् अंक से संकलित)
॥इति ॥
‌— ब्र. अरविन्द प्रकाशः

    ०१-११-२०१५

Wednesday 19 August 2015

                              “कर्म की पवित्रता का मूल

कोई भी प्राणी कर्म किये बिना नहीं रह सकता, कर्म और देह का परस्पर घनिष्टतम सम्बन्ध है। प्राणीयों की शारीरिक तथा मानसिक प्रवृत्तियों का क्रियान्वित रूप ही कर्म है। प्रत्येक मनुष्य की अलग प्रवृत्ति होती है जिसके कारण उसकी विचारधारा तथा उद्देश्य भिन्न होते हैं। मनुष्य की प्रवृत्ति का निर्धारण उसकी प्रकृति में निहित त्रिगुणीसामंजस्य से होता है। जिनमें सतोगुण की प्रधानता होती है उनकी प्रकृति सात्विक होती है तथा प्रवृत्ति निवृत्ति में होती है। रजोगुण तथा तमोगुण की प्रधानता वाले लोगों में भोग तथा स्वार्थ की उत्तरोत्तर अधिकता रहती है। गुणों की यह भिन्नता ही मनुष्यों की विचारधारा को प्रभावित करती है। मनुष्य जैसी सोच रखता है तथा जैसे वातावरण में रहता है वह उसके उद्देश्य में झलकता है। संयोगवश विधाता ने मनुष्य को कर्म करने की स्वतन्त्रता दी है, उसे बुद्धि तथा धृति से समपन्न किया है। जो अपने अन्दर छिपे हुये मैल को पहचान कर उस मैल का मार्जन कर लेता है, उस मनुष्य के उद्देश्य में पवित्रता आ जाती है और अन्ततः उद्देश्य की पवित्रता से ही कर्म पवित्र होता है।
—अरविन्द कुमार भारद्वाज

                                                                20 Aug 2015

Wednesday 20 May 2015

“आधुनिक समाज में तन्त्र की अवधारणा”

आधुनिकता की धुंध में तंत्र का वास्तविक स्वरूप ओझल हो गया है। आज का समाज तन्त्र का केवल एक हि अर्थ निकालता है और वो है जादू, टोना,टोटके आदि । परंतु सत्य तो इससे बिल्कुल भिन्न है। मन्त्रों द्वारा मन का नियंत्रण करके, यंत्र रूपी शरीर (तन) से ऊपर ऊठ कर अपने स्वरूप को जान लेना हि तंत्र का उद्देश्य है अर्थात् तंत्र आत्मानुभूति अथवा तत्वानुभूति का ही एक मार्ग है। मोक्ष को प्राप्त करने के अनेक अन्य मार्ग हैं जैसे कर्मयोग, ज्ञानयोग, हठयोग, भक्तियोग, प्रेमयोग, शरणागति आदि।  
इतिहासकारों और अनुसंधान कर्ताओं के अनुसार तंत्र ५०० ई० से अधिक पुराना नहीं है क्योकि तंत्र का साहित्य ५०० ई० के बाद का है। मैं अनुसंधान कर्ताओं के मत से इतर मत रखता हूँ। तंत्र का स्वरूप रहस्यमय है। तंत्र प्राचीन काल से ही गुप्त विद्या के रूप में प्रतिष्ठित रहा है तथा गुरू शिष्य परम्परा द्वारा ही इसका अग्रसरण किया जाता रहा है। अथर्ववेद तो तंत्र का भण्डार है, अतः यह कहना सही नहीं होगा कि तंत्र ५०० ई० से अधिक पुराना नहीं है। यह अवश्य कहा जा सकता है कि तंत्र के ग्रंथ ५०० ई० के पश्चात प्रकाश में आये।
सनातन धर्म की परम्परा में मोक्ष को परम पुरूषार्थ माना गया है, मोक्ष ही जीवन का परम लक्ष्य है। कौन ऐसा मनुष्य है जो परमता को प्राप्त नहीं करना चाहता? हम सभी आगे बढना चाहते हैं। परंतु इस आधुनिकता की दौड में भौतिकोत्थान चाहने वालों की संख्या मुमुक्षुओं (मोक्ष चाहने वालों) से कहीं अधिक है। अधिकांश लोग मोहवश भौतिक साधनों की अधिकता को उत्थान मानते हैं तो मुमुक्षु लोग आध्यात्मिक उन्नति को ही उत्थान कि संज्ञा देते हैं। यह माया मोह के कारण उत्पन्न हुआ भेद ही तंत्र के स्वरूप के विघटन का कारण है।
ज्ञानीजन इस सत्य से भलीभाँति अवगत हैं कि तांत्रिक साधनाओं का अधिकारी मुमुक्षु ही है। यह सर्वविदित है कि तंत्रमार्ग एक दोधारी तलवार के समान है। ऐसा इस लिये कहा जाता है क्योकिं तांत्रिक साधनओं के पथ पर साधकों को अनेकोंनेक सिद्धियाँ प्राप्त होती हैं, यह सिद्धियाँ साधक के मन को भटकाने में सक्षम होती हैं, इसका तात्पर्य यह है कि सिद्धियों को प्राप्त करने के पश्चात साधक को भोग की कुंजी मिल जाती है जिसके द्वारा भौतिक पदार्थों तथा परिस्थितिओं में परिवर्तन किया जा सकता है। यहाँ यह कहना कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी कि इस तरह के परिवर्तन की कोई वैज्ञानिक व्याख्या अभी तक प्रस्तुत नहीं हुई है क्योकिं हमारा आधुनिक विज्ञान अभी भौतिकता के अनुसंधान में व्यस्त है, उसे भी माया के जाल ने जकडा हुआ है। बहरहाल, तांत्रिक साधनाओं में प्राप्त होने वाली सिद्धियों से मिलने वाला भौतिक उत्कर्ष, साधक के लिये एक दलदल के समान है, जो साधक शमदमादि द्वारा मन तथा इंद्रियों का निग्रह करके आगे निकल जाता है वही परमपुरूषार्थ मोक्ष को प्राप्त करता है।
आगमशास्त्र, यामल, व तंत्रग्रंथों में साधना करने हेतु जो मार्गदर्शन किया गया है, वह स्पष्ट रूप से दो प्रकार का है- दक्षिणमार्गी तथा वाममार्गी। इन दोनों मार्गों के साधनाक्रम में पर्याप्त समानता है परंतु आचरणक्रम में अत्याधिक अंतर दृष्टिगोचर होता है। मार्ग चाहे कोई भी हो, यदि साधक अनुशासनबद्ध होकर साधना करता है तो वह निश्चय ही परमपद को प्राप्त कर लेता है। साधक को उसके लक्ष्य की प्राप्ति एक क्षण में होगी अथवा एक कल्प में अथवा इससे अधिक समय में, इसका सम्बंध साधक द्वारा पूर्वार्जित कर्म तथा साधक के प्रारब्ध से है। संक्षेप में यह कहा जा सकता है कि साधक द्वारा की जाने वाली साधना का पूर्ण होना साधक की व्यक्तिगतयोग्यता तथा उसके कर्मों पर निर्भर करता है।
कलियुग में शक्तिसाधना ही उद्धारकारिणी कही गयी है। शक्तिसाधना तंत्र का पर्याय है। हमारे शरीर में अनेकों जैविक क्रियायें निरंतर होती रहती है तथा हमें उनका आभास तक नहीं होता। इन सभी जैविक क्रियाओं के घटनाक्रम का कारण वह असीम शक्ति है जो इस यंत्र रूपी शरीर में विद्यमान है। इस शक्ति के शरीर में न रहने पर शरीर शव मात्र रह जाता है। इस शक्ति का साक्षात्कार हो जाना ही आत्मानुभूति है। यह शक्ति ही शरीर की सञ्चालिनी है। प्रत्येक सजीव के शरीर में, निर्जीव पिण्डों में तथा अखिल ब्रह्माण्ड में व्याप्त होने के कारण यह शक्ति ही सर्वव्यापिनी है। यह शक्ति ही आकाश में शून्यता की भाँति अरूपा तथा शब्द की भाँति सरूपा है, यही अग्नि में उष्णता की भाँति अरूपा तथा तेज की भाँति सरूपा है। यह शक्ति ही कण्ठ से वाक् रूप में प्रकट होती है। यह शक्ति ही किसी विशेष कार्य को करने के लिये बल रूप में प्रकट होती है। यह शक्ति ही माँस, अस्थि, मज्ज्ज, रक्त तथा वीर्यादि का वर्धन व पोषण करती है। यह शक्ति ही सृष्टि का सृजन करती है अतः यह जननी है तथा यह शक्ति ही निखिल ब्रह्माण्ड का मूल है अतः यह माँ है।
यह शक्ति ही परब्रह्म (परमात्मा) है तथा यही हमारे शरीर में स्थित कार्यब्रह्म (आत्मा) भी है। परब्रह्म तथा कार्यब्रह्म की एकरूपता को जान लेना अर्थात् शक्ति के स्वरूप को जान लेना ही तंत्र का ध्येय है। तंत्र मूल रूप से अद्वैत है। सफल तांत्रिकों का यह कर्त्तव्य है कि वह समाज में फैल रही तंत्र के स्वरूप की विकृति को रोक कर तंत्र के वास्तविक स्वरूप का परिचय समाज के समक्ष प्रस्तुत करें।
‌                                                                                                            —अरविन्द कुमार भारद्वाज
                                                                                                                        20 May 2015

Saturday 9 May 2015

“The Permanent Earning”

Everybody is running for earn money, position, relation and luxury. Out of them nothing persists for life time with the achiever. Karmic fruit is destroyable. In life, we get results of our karma in the form of ‘happiness and sadness’. Everybody is aware with the fact that ‘happiness and sadness’ do not stay persistently in the life. ‘Happiness and sadness’ come for time being in the life and make a rotation. The quantum of ‘happiness and sadness’ may defer in one’s life since ‘happiness and sadness’ are the fruits of our karma. If are doing enough of good karma, we shell awarded happiness whereas bad karma fruits sadness. During the rotation of ‘happiness and sadness’ in our lives we get experiences which develop and rectify our vision towards the life. Moreover, these experiences, simultaneously but slowly, make us realize the true essence of life. The moment we acquire the vision and the essence, we, very clearly, understand the meaning of our life. One who is aware with the meaning and purpose of his life, he no more runs for money, position, relation and luxury. He serves his life in the service of others and attains the eternal bliss. Not all can achieve this transformation because attachment towards worldly desires creates impedance in understanding. It happens with all of us. Sometimes we face worst situation and our thinking goes negative, at this moment we try to take out some positive out that worst had happened.  And we start saying. Whatever happens, it happens for our wellness. This is a way of convincing the mind and more or less, everybody goes on it. This is the most constructive way to go on because on this way a quality of acceptance develops in our behavior. On developing this quality of acceptance, one qualifies the degree of analyzing the events of ‘happiness and sadness’. Although, daily, we all are having experiences but how many of us try to develop our vision and understanding towards life?
Fraction is very less. Because we have more responsibilities of dependents (our parents, children, friends and society) than our own, that is why we do not have enough time to think about the self. We all time think about the life and future, we plan our pension. We have an illusion of living in a ‘dependent-independent society’.  A says, “I am dependent”. B says, “I am independent”. Both of them are in the flight of their imagination. Actually we people are living in an interdependent society. Never think that you are dependent or independent, we are interdependent society and we’ll always be. On the other hand, you’ll be yourself. Earning, the money, position, relation and luxury, is a business of society whereas serving the society is the business of yourself. So gain the experience, rectify the vision, realize the true essence of life, understand the meaning of life, unconditionally serve for the society and attain the eternal bliss. This eternal bliss is the permanent earning for one’s life.

—Arvind K Bhardwaj

      09 May 2015

Thursday 7 May 2015

“स्वानुसन्धान”
मानव जीवन का परमलक्ष्य अपने आप को जानना है। अपने स्वरूप का साक्षात्कार करना हमारे जीवन का ध्येय है, स्वरूपानन्द में प्रतिष्ठित रहना परमुद्देश्य की प्राप्ति का एक मात्र लक्षण है। अतीत तथा अतीत की अनुभूतियों से ऊपर उठ कर, सभी बन्धों को काट कर जो मनुष्य परमानन्द का अनुभव करता है, वही मनुष्य मुक्त है अर्थात् मोक्ष को प्राप्त है। मोक्ष परम पुरूषार्थ है, मोक्ष प्रत्येक प्राणी का अधिकार है। मोक्ष को प्राप्त करने का अधिकारी वही है  जो अपने स्वरूप को जान लेता है। अब प्रश्न यह उठता है कि क्या है हमारा सच्चा स्वरूप? इस प्रश्न का उत्तर सैद्धांतिक स्तर पर सभी जानते है कि इस शरीर में आत्मा का वास है परन्तु प्रायोगिक स्तर पर लोग इसे भूल जाते हैं। हमारा शरीर  प्रकृति – जड़  है तथा आत्मा चेतन । प्रकृति में निरन्तर परिवर्तन होता रहता है, इसी कारण हमारा शरीर भी निरनन्तर परिवर्तनशील है- शरीर में निरन्तर वृद्धि तथा क्षय आदि घटनायें होती रहती हैं। आत्मा, ब्रह्मस्वरूप अपरिवर्तनशील, चेतन तत्व है जो परिवर्तनशील शरीर में रहकर भी प्रकृति के गुणों से लिप्त नहीं होता। जिस प्रकार जल में तेल को डलने पर तेल जल में नहीं मिलता ठीक उसी प्रकार आत्मा भी शरीर में रहते हुये शरीर के गुणों से प्रभावित नहीं होता। शरीर नश्वर (मरणशील) है तथा आत्मा अनश्वर (अमर) । मैं यहाँ एक बात विशेष रूप से कहना चाहता हूँ – “जैसा जिसका भाव है, वैसा उसका काम” अर्थात् हम जो भी भाव रखते हैं वह हमारे कर्मों में निम्नाधिक रूप से अवश्य प्रकट होता है। हमारे हितैषी हमसे सदैव यही कहते हैं कि ऐसा काम करो जिसके करने से तुम्हारा नाम अमर हो जाये और स्वयं भी हम ऐसा ही करना चहते हैं। हम क्यों चाहते हैं कि हमारा नाम अमर हो? इसका उत्तर हमारे स्वरूप में निहित है। हम अमरता चाहते हैं क्योंकि हम अमर हैं। इससे स्पष्ट होता है कि हमारा स्वरूप अनश्वर अर्थात् आत्मा है। हम शरीर को सदैव सम्बन्ध भाव से ही देखते है जैसे मेरा हाथ, मेरा पैर, मेरा चेहरा, मेरा रंग, मेरा शरीर आदि। जब ये हाथ,पैर, रूप, आदि मेरा है तो मैं कहाँ हूँ? मैं अपने चेहरे, नेत्र आदि को दर्पण में देख पा रहा हूँ परंतु मैं स्वयं को नहीं देख पा रहा हूँ। विचित्रता देखिये कि मैं दर्पण में अपने नेत्रों द्वारा अपने नेत्रों को ही देख रहा हूँ, तात्पर्य यह है कि देखने वाला मैं (आत्मा) हूँ परंतु दिखायी दे रहा है मेरा शरीर (प्रपञ्च)। यह प्रकृति का प्रपञ्च इतना रमणीय है कि हमारे अन्दर भ्रान्ति उत्पन्न कर देता है और हम अपने स्वरूप को जानते हुये भी उसे देख नहीं पाते। हमें सदैव अपने स्वरूप का चिन्तन करते रहना चहिये। जप, तप, साधना, उपासना आदि के माध्यम से मन का निग्रह करके अपने स्वरूप का ध्यान करना चाहिये। इसका अभ्यास करते रहना चाहिये। आत्मगत होने पर ब्रह्म प्राप्ति सुलभ हो जाती है। अब देखना यह है कि कौन आत्मगत होकर स्वयं को जान पाता है?
                                                                                                            ‌—अरविन्द कुमार भारद्वाज

                                                                                                                        07 May 2015